सोमवार, 23 नवंबर 2009

हकीकत में न ले चलो दोस्तों...

मुझे हकीकत में न ले चलो दोस्तों,
बस इक बार कहूँगा बेगुनाह हूँ दोस्तों|

कदम पहले बढ़ाने की कोशिश की हर सफ़र में 
ठहर गया तूफानों से रास्ते जब बदल गए दोस्तों| 

हर हाथ सहारे को बढतें रहे हर पल 
गलत थे जो उसको उधार कह गए दोस्तों|

चोट खाकर अभी संभल पाए थे नहीं 
खुद ही आँखों में आँसू देखे थे दोस्तों|

तमन्नायें देखो तो लोकेन्द्र भी रखता है 
बस आप अपनी मंजिल फ़तह करो दोस्तों|

बुधवार, 4 नवंबर 2009

ज़माना बदल गया...

एक दिन पार्क में बैठा मै किसी सोच में डूबा था| तभी वहाँ कुछ रोचक प्रसंग दिखाई पड़ा, जिसे मैंने कागज पर उतार कर उस तीर से एक और निशाना साधने की कोशिश की| जिसे मै और अच्छा कर सकता हूँ, लेकिन दिमाग के थके होने और जल्दबाजी के कारण जैसे बन पड़ी आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ| संशोधन आगे होता रहेगा......अब जरा आप गौर फरमाइएगा......


तन ढकने में 
असमर्थ कपड़ो संग 
प्रेमपाश में 
देख इक लड़की को 
बुजुर्गियत के दूत से 
आवाज आई 
ज़माना बदल गया है,


गौर फ़रमाया तब 
बोल पड़े 
बेटा तुम 
पूरे कपड़ों में 
घर से 
निकली थी 
जवाब कुछ 
उनसा ही आया 
पापा अब 
मौसम है बदल गया,


प्रेमाभिनय में 
छोड़ उन्हें 
फोन पर 
किसी से 
कहतें हैं 
डार्लिंग मत 
आना यहाँ तू 
 मजमा कुछ अब बदला है,


सबको अब 
सन्देश मिला था 
मन तो अब भी 
है वहीं 
बस तन का रंग 
जरा सा बदला है 
ज़माना तो 
देखो है वही 
बस स्वरुप 
थोडा सा बदला है !!

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

"पल-पल बढ़ती हुयी..."

एकांत में बैठा मै कुछ सोच रहा था की तभी कुछ लिखने की चाह में मैंने कलम उठा ली| फिर जो भावनाए निकली वो अब आपके सामने प्रस्तुत है.....

पल-पल बढ़ती हुई 
रिश्तों की गहराई में 
खामोश निगाहों से 
कहती थी वो
कुछ बातें, 
समझ बनी तो 
कुछ था समझा 
लफ्ज नही 
फिर भी दे पाया, 
अब चाहूँ तो 
वो दूर खड़ी है 
बन्धन में बस 
एहसासो की डोर से, 
तमन्नाओं को फिर भी 
मार रहा हूँ 
नई उमंगें 
लाने को,
फिर भी कोई 
वजह है जो 
दिल को
इंतजार रहता है |

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

"कागज के जहाज अक्सर उछाला करतें हैं..."

कुछ घटनाओं को जब मैंने कल्पना के चादर में लपेटा तो यही पंक्तियाँ बन पड़ी। जिसमे मैंने हास्य का तड़का देने का भरपूर प्रयास किया है। ये मेरा हास्य का प्रथम प्रयास अब आपके सामने प्रस्तुत है.........



आज भी हम ठण्डी आहें भरा करतें हैं
कागज के जहाज अक्सर उछाला करतें हैं,
कभी थी जिन्हें हमदम बनाने की चाहत
छत पर बैठ उनकी खिड़कियों में झाँका करतें थे,
देखें कोई जब, नजरें किताबों में उतारें हम
तस्वीर उन्ही की बनाया करते थे,
हम आज भी ठण्डी आहें भरा करतें हैं
कागज के जहाज अक्सर उछाला करतें हैं।

आखें उनसे चार हुई थी जब
वो नजरों से कुछ तीर चलाया करते थे,
दिल जब घायल हो गया मेरा
हम अहसासों के पुल बनाया करते थे,
आज भी हम ठण्डी आहें भरा करते हैं
कागज के जहाज अक्सर उछाला करते हैं।

जब मौका मिला था मुलाकात का उनसे
उनकी सखियों के बीच हम ही शरमाया करते थे,
कॉफी हॉउस में बैठ कर हम
चाय मंगाया करते थे,
आज भी देखो हम ठण्डी आहें भरा करते हैं
कागज के जहाज अक्सर उछाला करतें हैं।

जब इकरार की बारी आई थी
छत पर गुलाब लगा हम इजहार किया करते थे,
प्रेम पत्र को, जहाज भूल हम
नाव बना कर उछाला करते थे,
नाव बिन पतवार ऐसी बहा करती थी
इजहारे मोहब्बत उनके बाप तक पहुँच जाया करती थी,
इकरार में पिटाई का पैगाम आया करता था
मोहब्बत की ताकत ने नही तब
बाहुबल मुझे बचाया करता था,
आज हम वही गलती सुधारा करतें हैं
कागज की नाव नही अब
जहाज को उछाला करतें हैं,
आज भी हम ठण्डी आहें भरा करतें हैं
कागज के जहाज अक्सर उछाला करतें हैं !!

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

"मीत बना मै घूम रहा हूँ..."

अपनी पी.जी. पूरी करके पढाई के कारण लखनऊ छोड़ने के बाद एक दिन मधुशाला पढ़ते हुए, तनहाइयों में बच्चन जी की साकी, प्याला, हाला और मधुशाला को अपनी भावनाओ में डाला तो ये रचना बन पड़ी थी..... जिसे मै अपने डायरी के पन्नो से निकालकर आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ.....
.
मीत बना मै घूम रहा हूँ
साथ लिए वीरानी को,
यादों का अवरोध लगाकर
बस यह आस लगाता हूँ !!
.
काश कहीं मिल जाते अपने
मिल जाता फिर उनका साथ,
संग होते सब मित्र हमारे
साथ लिए समृद्धि को,
.
मुझे दूरी का हे मित्रो
कष्ट नही कुछ भी होता,
मिलेंगी हमको मंजिल इक दिन
तब साथ रहेगें बन हमसाया !!

रविवार, 30 अगस्त 2009

"तोहफा..."

ये रचना मैंने अपने लखनऊ विश्वविद्यालय में दोस्तों के मस्ती के साथ बीती जिंदगी के दौरान लिखी थी, जो डायरी के पन्नो में नीचे दबी पड़ी थी। आज जब नजरो के सामने मिली तो उन्ही एहसासो को आपके सम्मुख प्रस्तुत कर दिया.......



वो बचपन के छूटे हुए पल
वो हंसते हुए गुजरा कल
वो खुशी से झूमते हुए पल
वो चोट खाये रोते हुए पल
वो स्कूल की यादें
वो नन्ही शरारतें
दोस्ती में देखो इनका मजा क्या है !!

वो यारों की मस्ती
वो यारों से मस्ती
बिछड़े दोस्तों की यादों की मस्ती
वो दोस्तों का साथ
वो दोस्तों के देखें हुए ख्वाब
वो टूटे हुए रिश्ते
इन रिश्तों में बीतें हुए पल
यहीं यादें हैं दोस्ती की
यही अनमोल तोहफा है जिंदगी का !!

शनिवार, 29 अगस्त 2009

"जब भी ये मन उदास होता है..."

इस रचना को मैंने कुछ दिन पहले लिखा था। परन्तु कुछ कारणों वश उसे तब नही दे पाया था। इसे मैंने तब लिखा था, जब किसी अपने के कारण मुझे कुछ दुःख पहुँचा था और इत्तेफाक देखिये उस बार फ़िर मै अकेला ही था। उसी समय जो भावनाएं निकली उन्हें पन्ने पर दर्ज कर दिया और आज उन्ही एहसासो को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ...
जब भी ये दिल उदास होता है
कोई न जाने मुझे क्या रास होता है
मुस्कराते है हम भी
जब किसी का साथ होता है,
लगता है वो छलावा
पर करें भी हम क्या
जब दिल उदास होता है।
रहते थे तनहा
फ़िर रह गए तनहा
क्यों हुआ ये
बस यहीं सवाल होता है,
रोक ले हम किसी को कैसे
तनहाई खोने की चाहत में
वो ख़ुद से न जब
मेरे पास होता है।
होते है जीवन के
कुछ ऐसे पहलू भी
जिन्हें फ़िर से
जीने की चाह होती है,
इसी कसक में
इक गम साथ होता है
तभी ये दिल उदास होता है!!

बुधवार, 26 अगस्त 2009

"एक सबक हमने सीखी अब आप भी सीखों भाई..."

कहतें हैं ठोकरे इन्सान को चलना सीखती हैं। इसका उदाहरण बचपन से ही मिलता चला आ रहा है। जब अपने बडों से ज्ञात होता है की बचपन में पहला कदम बढ़ाने से पहले हमने कितनी ठोकरे खायी है। जिसका सबूत भी शायद शरीर के किसी भाग पर किसी पुराने चिन्ह के रूप में दिख जाता है। आगे और सबूत के तौर पर विद्यमान है जब हम बचपन से निकल कर साईकिल सीखते समय अपनी कोहनी छीलते है और लोग कहतें है अब तुम्हे चलाना आ जाएगा। आगे जब स्कूटी या मोटर साईकिल सीखते समय पैर चोटिल करते हैं तो सुनाई पड़ता है अब परिपक्व हो जाओगें। और आगे बढे तो कार सीखतें समय जब अच्छी तरह उसमे धन लगाने का बंदोबस्त कर दें तब फ़िर एक मुहर लगती है की अब सुधर जाओगे। और कही यातायात नियमो के तहत दंड का भुगतान कर बैठे तब हो जाता है की अब मास्टर हो गए।
टीक इसी प्रकार आज कई दिनों से एक उलझन में रहने के बाद मै भी ब्लॉग जगत के बारे में कुछ आंशिक रूप से सीख गया। पहला तो यही की यहाँ बस मस्त रहो। इसके आगे बस यही कहता चलूँगा की हमेशा यहाँ सकारात्मक सोच के साथ ही मौजूदगी दर्ज कराइए।
"खुशियाँ बाटो,
ज्ञान बाटो,
बाटो कुछ एहसासे भी,
जो भी सब को खुशी दे दे
बाटो वो जज्बातें भी॥"


हैप्पी ब्लॉगिंग...

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

बरसीं लाठियाँ, हाय लोकतंत्र...

देश में और दिल्ली में उस राष्ट्रीय पार्टी की सरकार है जिसने देश को पहली लोकतांत्रिक सरकार दी थी। लेकिन लोकतंत्र के नाम पर क्या मिला अपने बेबशपन को देखकर यह प्रश्न कभी-कभी जहन को काफी उद्वेलित कर देता है। सन् १९४७ के पूर्व जहाँ हमारे पूर्वजों का अंग्रेजों द्वारा शोषण होता था, अब हमारे लिए सरकारी मशीनरी ने यह काम संभाल लिया है। जिसका कुछ दुखद बयान मुझे यहाँ प्रस्तुत करना पड़ रहा है।
हम दिल्ली के मुखर्जी नगर क्षेत्र में रहकर यू.पी.एस.सी. की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहें हैं। यहाँ पर रह रहे हजारों छात्रों का कई प्रकार से शोषण स्थानीय लोगो द्वारा किया जाता है। जिसमे इनके रूप कभी मकान मालिक का, कभी दुकानदार का, कभी कोचिंग का, कभी कमरा दिलाने वाले दलाल का या फिर यहाँ के जाहिल ख़ुद को बादशाह समझते लोगों में से ही रहता है। जिसमे इनकी कहीं न कहीं से सहयोगी सरकारी मशीनरी भी रहती है।
इसी का एक १२ अगस्त २००९ का उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है की एक छात्र को एक स्थानीय दुकानदार ने सिर्फ़ इसलिए बुरी तरह हाकी और लोहे के राड से पीट दिया क्योंकि वह उसके दुकान के नीचे सीढियों के पास चाय पी रहा था। हालांकि वही एक चाय की दुकान भी स्थापित है। पिटाई से उसे बहुत गंभीर चोटें आई, और उसे जख्मी हालत में उसके कुछ मित्रो द्वारा हॉस्पिटल में भर्ती किया गया। कुछ लोगो से सुनने में आया है की उसके सिर में ८ टांके लगे हैं और गाल भी पूरा फट गया हैं। परन्तु उसके मित्रो द्वारा पुलिस को प्रथम सूचना रिपोर्ट देने पर, पुलिस उसे दर्ज न करके, न ही कोई कार्यवाही करके उन्हें ही गिरफ्तार कर पूछताक्ष हेतु थाने ले जाने लगी। देखतें ही देखतें ये ख़बर पूरे मुखर्जी नगर और आस-पास के क्षेत्रों में फ़ैल गई। जिससे अभी तक शोषित छात्र एक साथ जाग गए और सैकडों की संख्या में सड़को पर आकर उस दूकानदार की गिरफ्तारी की मांग करने लगे। परन्तु काफी देर तक ये मांग पूरी नही हुई और जब हुआ तो मामूली सी धारा में पुलिस ने उसे हिरासत में लेकर सुरक्षा प्रदान की। तब छात्रों का सब्र टूट गया और उन्होंने थोड़ा उग्र रूप धारण करते हुए रास्ता जाम कर दिया।
इस बात की जानकारी मुझे रात में करीब १० बजे हुई। जब एक फोन कॉल ने मुझे ये अवगत कराया की हमारा एक मित्र बुरी तरह घायल है और हॉस्पिटल में है। वो रोज की तरह मुखर्जी नगर में एक रेस्त्रां से रात का खाना खा के जा रहा था। तभी उसने देखा की सामने से कुछ पुलिस रुपी गुण्डे उसकी तरफ़ तेजी से लाठी भांजते हुए आ रहे थे तब वो खुद को बचाने के लिए वही इक परिचित के प्रथम तल पर स्थित कमरे में घुस गया लेकिन पुलिस ने तो शायद उससे कोई दुश्मनी कर ली थी की ऊपर मकान में दरवाजा तोड़कर उसे साथ ही अन्य मौजूद लोगो को मारते-मारते बेदम कर दिया। हमारे उस मित्र का नाम 'परवेज अंसारी' है, जिसे पुलिस दंगाई की संज्ञा देकर पीटने के आरोप से पल्ला झाड़ रही है। आपको मै बता दूँ की इस शख्स का कद मात्र ५ फीट ५ इंच के करीब है और वजन ५४ किलो ग्राम से ज्यादा नही होगा और बी.टेक. की डिग्री प्राप्त यह शख्स आई.ए.एस. अधिकारी के पद को प्राप्त करने हेतु अपनी नौकरी से त्याग पत्र देकर यहाँ तैयारी कर रहा है।
इसे पुलिसिया गुंडों ने इस प्रकार पीटा है की उसके सिर में तीन टांके लगे हैं और हाथ व पैर में भी पट्टियाँ बंधी हैं साथ ही अंदरूनी चोटों के कारण न वो ठीक से बैठ पा रहा है न ही लेट पा रहा है, जिससे दो-दो कोचिंग रहने के बावजूद तथा आगामी प्रतियोगी परीक्षाओ के रहने के बावजूद ये पढाई न करके स्वास्थ लाभ लेने के लिए मजबूर है ये तो मेरे मित्र का उदहारण है जबकि ऐसा यहाँ शाम से ही कई चरणों में पचासों छात्रों के साथ हुआ है शर्मिंदगी तब और आ जाती है जब ये पता चलता है की कई छात्राओं के साथ भी यही हुआ है वो भी वो जो अपनी-अपनी कोचिंग से छूटे थे या जो वहां स्थित ए.टी.एम. से रुपये निकालने गए थे या वो जो किताबें या कुछ अन्य सामान खरीदने गए थे या परवेज की भांति जो रात का खाना खाने गए थे
एक बात मै यहाँ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ की भारत के अन्य क्षेत्रो से आये विद्यार्थियों पर ही मुखर्जी नगर के और आस-पास के क्षेत्र की अर्थव्यवस्था निर्भर करती है जिनमे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, और पूर्वोत्तर के राज्यों से आये विद्यार्थियों की संख्या सर्वाधिक है अरे हम अंगुली उठाते हैं आस्ट्रेलिया पर और महाराष्ट्र पर जबकि देश की राजधानी में ही लोगो के साथ क्षेत्रवाद के द्वारा ऐसा शोषण हो रहा है, तब तो सरकारी मशीनरी ही एक प्रश्न चिन्ह बनकर रह जाती है जिसमे शामिल लोगो की अत्यधिक संख्या मुखर्जी नगर में रहकर तैयारी करके सफल हुए प्रतिभागियों की भी है
अब मुझे इस प्रदेश और देश की लोकतान्त्रिक सरकार से कुछ प्रश्नों के उत्तर चाहिए की स्थानीय स्तर पर लोगो से हो रहे यहाँ के शोषण के खिलाफ वो क्या कर रहे हैं? इस लोकतंत्र में बिना किसी पूर्व सूचना के या बिना किसी चेतावनी के निर्दोष छात्रो को बुरी तरह क्यों पीटा गया? कब होगी हमारे ऊपर हुए इस अत्याचार के खिलाफ कार्यवाही? कौन देगा हमारे प्रश्नों का जवाब? क्या अंतर रहा उस दुकानदार और कानून के रक्षक इन पुलिस वालों में? कौन गिरफ्तार करेगा इन दोषियों को? काश मिल सकता हमें इसका जवाब तो आजादी की ६२वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर हम और गर्व से कह पाते की हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश के निवासी हैं

बुधवार, 12 अगस्त 2009

"तनहाई..."

लिखा मैंने इसे काफी पहले था लेकिन आज फ़िर से इसे आप सब के सम्मुख पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ। ये रचना तब आई थी जब हम सब मित्र लखनऊ विश्वविद्यालय की जिंदगी में मस्त थे। और देर रात फ़िल्म देख कर और मस्ती करके जब मै अपने कमरे पर आया तो इकदम अकेला था, तब ही जो भावनाए आई उसे एक पन्ने पर दर्ज कर दिया..... वो अब आपके सामने है......


रात की तनहाई में
इक बार फ़िर हम आ ही गए
न चाहते हुए
अपनी कमजोरी छिपा ही गये,
किताबों से दूर हैं
और कलम चलाते गये,
इसी में
अपनों की कमी हटाते गये,

दोस्त खोजते हैं हमें
और हम ख़ुद को छिपाते गये,
जब सामने लाया ख़ुद को
सब मुझ में कमी बतातें गये,
हम भी नादान थे
सबको बातों में उलझातें गये,
सब महसूस करते हुए
वो दिल को बहलाते गये,

भूलतें हैं हम भी
लेकिन बिछड़े याद आतें गये,
क्यों बिछड़े या मिलें हम
इक सवाल उठातें गये,
हर बार भूलने की कोशिश की
यादों की आड़ में हर कदम हटाते गये,

दोस्तों का साथ हुआ
तो दुनिया को खुशी दिखातें गये,
मंजिल की तलाश में हम
इक साथ कदम बढ़ातें गये,
सब मंजिलो की ओर बढ़े
मुझे तनहाई महसूस कराते गये,
तनहाई में इक बार फिर हम आते गये
रात की तनहाई में हम आतें गये !!

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

"यादों की इक रेल चली..."

बस ऐसे ही एकांत में बैठा था मै की अन्तरमन कुछ पाने को व्यग्र सा हो रहा था। मैंने उसी समय अपनी कलम उठा ली और भावनाओ को एक पन्ने पर दर्ज कर दिया............. उसी एहसास की बातें अब आप लोगों के सामने यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.............
यादों की इक रेल चली है
संगी-साथी लाने को,
पाने को वो हमराही 
जो हमदर्द हमारा होता था, 
यादों की इक रेल...... 

सफर में चलती रही  

इक कारवां के साथ में 
मंजिल अभी मिल न सकी
कुछ राहगीर पाती गई, 
यादों की इक रेल.......

बदगुमाँ माहौल था जब 

मिला न वो हमसफ़र, 
सिसकियों की आड़ में 
वो दास्ताँ कहती गई,
यादों की इक रेल........

कुछ मित्रों को ढूंढ रही थी 

उन सूनी सी राहों पर, 
मस्ती के पल को कैद किए 
जहाँ पर यादें बसतीं थी, 
यादों की इक रेल........

भूली है न वो कुछ भी 

न भटकी है राहों से, 
सब मिल जाता उसको कैसे 
यह ही अब इक प्रश्न बचा, 
यादों की एक रेल चली है 
संगी-साथी लाने को !!

सोमवार, 27 जुलाई 2009

"मासूम शाम आ गई..."

कई दिनों से यहाँ मै लिखने से दूर रहा। इस बीच मैंने कुछ लिखा भी तो उसे यहाँ लिखने का मन नही हो पाया और कुछ व्यस्तता ऐसी रही की यहाँ से दूरी भी बनी रही। एक बार फ़िर आप लोगो से उस दूरी को हटाते हुए, मै यहाँ अपनी कुछ भावनाओं को कुछ पंक्तियों के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा हूँ........




खोई हुई हैं महफिलें
खोया है इक समां प्यारा
तलाश करने की जब कोशिश की
चलते ही मासूम शाम आ गई,

खोये हैं जीवन के कुछ पहलू
खोये हैं कई फ़साने भी
सबको समेटने की जब कोशिश की
चलते ही मासूम शाम आ गई,

खोया है इक जश्न सुहाना
खोया है एक कारवां भी
पाने की जब कोशिश की
चलते ही मासूम शाम आ गई

अब प्रतिज्ञ हूँ न कुछ खोऊँ
अल्फाजों की जागीर भी
दास्ताँ सहेज लूँ डायरी के पन्नो में
लफ्ज कभी भी मिल जायें जो ,
लेखक बनने की जब भी कोशिश की
चलते ही मासूम शाम आ गई !!

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

"रक्तदान महादान..."

अभी कुछ दिन पहले मै एम्स में रक्तदान करने गया थाहांलाकि इसे दान की श्रेणी में नही रख सकते क्योंकि मै किसी अपने की जरूरत पर रक्त देने गया थामेरे मित्र विकास के पिता जी का यहाँ ब्रेन ट्यूमर का ऑपरेशन होने वाला था, इसीलिए यहाँ के डॉक्टरों ने चार यूनिट ब्लड की मांग की थीजिसके लिए हम चार लोग ब्लड बैंक पर इकट्ठा होकर फॉर्म भर रहे थे
तभी एक अन्जान व्यक्ति आकर मुझसे मिला और पूछा की आप लोगो को कितने यूनिट ब्लड की जरूरत हैउसकी हिन्दी बहुत ही अशुध्द थी और उसे समझना भी थोड़ा सा कठिन थामैंने कुछ सोचकर जवाब दिया चारउसने फिर मुझसे पूछा क्या आपके पास एक डोनेटर ज्यादा है मैंने फ़ौरन जवाब दे दिया अभी तो कोई नही है, चार की जरूरत थी और हम चार ही हैंफिर उसने अपनी टूटी-फूटी हिन्दी में बताया की वो आंध्र प्रदेश से अपने पिता के ब्रेन ट्यूमर के ऑपरेशन के लिए आया है और उसे भी चार यूनिट ब्लड की जरूरत है, जबकि उसके पास सिर्फ़ तीन ही डोनेटर हैं
एक बात यहाँ एकदम सच कहूँगा की मैंने उस समय पल्ला झाड़ते हुए कहा की अभी तो हमारे पास कोई नही है लेकिन हमारे साथ के ही एक लोग ने उनकी मदद के लिए किसी को फोन करके बुलाया और उसने आने को भी कहा तो लगा जैसे मेरे ऊपर से कोई बोझ उतर गया हैलेकिन कुछ समय बाद जब ये पता चला की किसी कारण वश वो नही रहा है तो सबकी नजर एक बार फिर मेरे ऊपर टिक गईमैंने अपनी नजरे भी बचाने की कोशिश कीतब उस व्यक्ति जिसका नाम किरण कुमार था की मायूस आँखें देखकर मुझे ग्लानि महसूस हुई और मैंने ख़ुद को धिक्कारतें हुए ये कहा की सबको मानवता का पाठ पढाने वाला आज ख़ुद क्यो इससे भाग रहा है और फिर अपनी प्रकृति के ही अनुरूप मैंने इस ऊहापोह से निकलने के लिए, मदद की चाह में और उनकी रक्त की जरूरत की पूर्ति के लिए अपने एक छोटे भाई सौरभ को फोन कियाजो यहाँ पहाड़गंज में रहकर एम. बी. ए. की तैयारी कर रहा था
मैंने उसे पूरी स्थिति की जानकारी दी और उसके स्वयं पर छोड़ दिया की वो उन्हें आगामी कई प्रतियोगी परीक्षाओं के नजदीक रहने के बावजूद जिसमे पहली परीक्षा पॉँच दिन बाद थी, रक्तदान करेगा या नहींतभी उसने मुझे और असमंजस में ये कहकर दल दिया की भय्या आप जैसा कहियेउस समय मुझे कुछ सूझ नही रहा थामैंने फिर उससे धीमे से कहा की मुझे लगा है तभी मैंने तुम्हे फोन किया है और शायद उसने मेरी परेशानी को समझकर कहा की मै रहा हूँमैंने उन लोगो को बताया की हाँ वो रहा है और हम चारो खून देने चले गए
जब मै बहार निकला तो किरण मुझे वही बहार मिलाउस समय सुबह के करीब ग्यारह बज रहे थेवही पर मैंने उसका मोबाईल नम्बर लिया और हम जूस पीने चले गएसौरभ कुछ देर बाद एम्स पहुँचातब तक ब्लड बैंक में काफी भीड़ हो गई थी और हम लोग नम्बर लगाकर वहीं काफी देर तक खड़े रहेफिर कुछ देर बाद लंच ब्रेक भी हो गया और समय पर समय लगता चला गयासौरभ के साथ उन तीनो का ब्लड करीब साढ़े थीं बजे निकाला गया खून देने के बाद वास्तव में वें लोग काफी कृतज्ञ थे और भविष्य में कभी हैदराबाद आने पर बार-बार मिलने पर ही जोर दियावहां से उन्होंने हम लोगो को जबरदस्ती ले जाकर जूस पिलाया और वहीं से हम लोग विदा हुए
एक दिन बाद जब वहीं एम्स में किरण की माँ विकास से मिली तो उन्होंने उसे बहुत सा आर्शीवाद दिया और इस बात पर कृतज्ञता व्यक्त किया की हम लोगो ने वाकई में उनकी बहुत मदद की हैशायद इसका फल भी मिला है, सौरभ को आगामी परीक्षा में सफलता मिली और उसका चयन टाटा-धान अकेडमी मदुरई में एम. बी. ए. के लिए हो गया

गुरुवार, 21 मई 2009

"आज स्वयं (लोकेन्द्र) के जन्म दिन पर..."

आज २१ मई के दिन जीवन में पहली बार है जब मै अपने परिवार और मित्रों के साथ नहीं हूँ और जन्मदिन की शुभकामनाएं और आर्शीवाद प्रत्यक्ष रूप से नही बल्कि मोबाईल और इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त कर रहा हूँ। आज मै पहली बार अपने जन्म दिन पर दिल्ली में हूँ। जिस कारण आज के दिन मै पूर्ण रूप से अपने परिवार और अपने मित्रों की कमीं महसूस कर रहा हूँ, या कह सकतें हैं की मै लखनऊ की कमी महसूस कर रहा हूँ। जहाँ हमारी यादें बसती हैं, जहाँ हमारी मस्ती फिरती हैं या जहाँ हमारे मित्र रहते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति की तरह ये दिन मेरे लिए भी एक अहमियत रखता है। लेकिन लखनऊ में रहते हुए और अपने परिवार के सदस्यों तथा मित्रों से घिरे रहते समय इस दिन की विशेषता का उतना ज्ञान मुझे नही था, जितना की आज सुबह नींद खुलने के समय हो रहा था। क्योंकि लखनऊ में रहते समय सुबह बिना किसी उठाये जब भी नींद खुलती थी तो अपनो के चहरे मुझे घेरे दिखाई पड़ते थे, शुभ कामनाओं के साथ ये कहते हुए की जल्दी ब्रश करके आओ नही तो नाश्ता ठंडा हो जायेगा, मिठाई खत्म हो जायेगी और न जाने क्या-क्या सिर्फ़ अपनी ही मस्ती में। और वर्तमान में यहाँ आज सुबह मेरे साथ है सिर्फ़ मेरा अकेलापन, जो न चाहते हुए भी मेरा अपना है और उसका एक ही तोहफा है तनहाई।
आज भी बारी-बारी से सभी अपनो से मुझे आर्शीवाद और शुभ कामनायें प्राप्त हुई हैं। लेकिन मुझे उस तोहफे की कमी काफी महसूस हो रही है जो लखनऊ में मुझे बिना मांगे मिल जाता था। वो है मेरे माँ-पापा, भय्या का आर्शीवाद और मेरे दोस्तों का साथ।
आज के दिन मै इस बात को कत्तई नहीं छिपऊँगा की दोस्तों आज मुझे आप सब की कमीं काफी महसूस हो रही है। काश आज वो तोहफा मुझे हमेशा की तरह मांग कर भी मिल जाता।

सोमवार, 18 मई 2009

"किसी का इंतजार बाकी है..."


न कोई बात बाकी है
न कोई रात बाकी है
तमन्नाओं में जाने क्यूं
अब भी इक शाम बाकी है,

न कोई ख्वाब बाकी है
न कोई सफर बाकी है
डायरी में जाने क्यूं
अब भी कुछ याद बाकी है,

वादा था किसी का
न कोई मुलाकात बाकी है
दिल में न जाने क्यूं
किसी का इंतजार बाकी है !!

शनिवार, 16 मई 2009

"जागरुक मतदाता, उभरता लोकतंत्र..."

वर्तमान चुनाव के परिणाम को देखकर एक संतोषजनक स्थिति उत्पन्न होती है मजबूत पार्टी के रूप में तो मतदाताओ ने कांग्रेश को प्रस्तुत किया है लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में मजबूत नेता को अभी आना बाकी है इस बार के चुनाव में मतदाताओ ने अत्यधिक अवसरवादियों को बाहर का रास्ता दिखाया है, जो की निर्णायक सरकार के बनने का भी सफल मार्ग है
उत्तर प्रदेश में कांग्रेश की बढती सीटों को देखकर यह प्रतीत हो रहा है की यहाँ की जनता अब समप्रदायिकता से उबरकर शान्ति चाहती है, बेरोजगारी भत्ता की जगह रोजगार की गारंटी चाहती है, जातिवाद के सोशल इन्जीनरिंग से निकल कर देश की प्रगति एवं कुशल प्रशासन चाहती है
उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट के मतदाताओ के एक विशेष वर्ग ने एक बाहुबली पर एक विद्वान नेता मुरली मनोहर जोशी को जीत दिलाकर, साथ ही तमिलनाडु के शिवगंगा लोक सभा सीट पर बहुत ही करीबी और रोमांचकारी मुकाबले में देश के वर्तमान गृहमंत्री एवं एक कुशल नेता पी. चिदम्बरम को जीत दिलाकर संतुष्टि दी है
बिहार में ..यू . के प्रदर्शन और नीतिश कुमार के स्पष्ट बयान आने से एवं पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेश की विजयी सीटों की संख्या और ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षा को देखते हुए रेलवे मंत्रालय एक बार फ़िर पश्चिम बंगाल या बिहार की पटरी पर दौड़ती हुयी प्रतीत होती है ये तो बस अनुमान लगाये जा रहें हैं, अभी तो मंत्रिमंडल का आखिरी स्वरुप आना बाकी है
भारत की जनता निर्णायक सरकार के रूप एक सर्वश्रेष्ठ मंत्रिमंडल को देखना चाहती है जिसमे वर्तमान के असफल मंत्रियों और अवसर वादियों की झलक दिखलाई दे

शनिवार, 9 मई 2009

"गुलाल..."

अभी हाल ही में मैंने एक फ़िल्म 'गुलाल' देखी हैलेकिन मै इस फ़िल्म को अच्छे से समझ नही पाया हूँशायद इसीलिए मै अब तक इस फ़िल्म को कई बार देख चुका हूँलेकिन हर बार इस फ़िल्म के छोटे पर बहुत मारक संवाद ने इसके बारे में मेरे विचार को लगातार बदला है और मै इस द्वंद में रहा हूँ की ये फ़िल्म कोई संदेश देती है या फ़िर इसका नकारात्म अंत किसी यर्थात के दर्शन कराती हैये द्वंद भी मेरे इस फ़िल्म को कई बार देखने के फलस्वरूप ही उत्पन्न हुआ है क्योकि फ़िल्म देखने में हर बार मेरे साथी अलग-अलग थे और उनके विचार और किरदार की पसंद भी भिन्न थे अधिकतर लोगो को मैंने अपने परिवेश के मुताबिक किरदारों को पसंद करते देखा हैलेकिन एक दिन जब हम एक समूह में बैठे इस विषय पर चर्चा कर रहे थे तभी हमारे बीच बैठे एक शख्स जो की एक जाति विशेष के घोर विरोधी लग रहे थे ने अपनी पसंद फ़िल्म के एक किरदार करन (आदित्य श्रीवास्तव) को बतायातो हम अचम्भित भी थे और हँस भी रहे थेखैर हमारी हँसी ने ही उनको अपने उत्तेजना भरे बयान पर शर्मिंदा कर दिया और वो हमारे जवाब और कटाक्ष से भी बच गए इस फ़िल्म के समस्त पात्रो ने अपने-अपने अभिनय को तो बखूबी निभाया है लेकिन इस फ़िल्म में मौजूद इसके संगीत निर्देश एवम् अभिनयकर्ता पियूष मिश्रा ने अपने अभिनय एवं व्यंग दोनों से ही सबका ध्यान आकर्षित किया हैइनके द्वारा वर्तमान के पथ से भटके नौजवानों पर किए गए व्यंग पर यर्थात के दर्श तो होते ही है साथ ही हंशी भी आती है

"ओ
रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्ताँ
देखते कि मुल्क़ सारा ये टशन में थ्रिल में है

आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गये
अपनी आज़ादी तो भइया लौंडिया के तिल में है

आज के जलसों में बिस्मिल एक गूँगा गा रहा
और बहरों का वो रेला नाचता महफ़िल में है

हाथ की खादी बनाने का ज़माना लद गया
आज तो चड्ढी भी सिलती इंगलिसों की मिल में है!!
"

यहाँ हमें कुछ और भी देखने को मिला वो है विश्वास घातियों के अनेक रूप और सच्चे साथियों के कुछ विशेष रूप दुनिया जीतने के अपने ख्वाब को साकार करने के लिए ग़लत मार्ग के चुनाव का फल तो यहाँ ग़लत दिखाया गया है लेकिन उसके अंत में वर्तमान के मुताबिक ही बुराई की जीत भी दिखायी गई है जो इस बात को भी सत्य करती है की वो उससे ईमानदार इसलिए है क्योकि उसे चोरी के मौके कम मिले हैं शायद इसीलिए फ़िल्म के अंत में प्यासा फ़िल्म के पुराने गाने को नये रूप से प्रस्तुत कर यर्थात का क्षणिक अनुभव कराया गया है
"ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है..."