गुरुवार, 21 मई 2009

"आज स्वयं (लोकेन्द्र) के जन्म दिन पर..."

आज २१ मई के दिन जीवन में पहली बार है जब मै अपने परिवार और मित्रों के साथ नहीं हूँ और जन्मदिन की शुभकामनाएं और आर्शीवाद प्रत्यक्ष रूप से नही बल्कि मोबाईल और इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त कर रहा हूँ। आज मै पहली बार अपने जन्म दिन पर दिल्ली में हूँ। जिस कारण आज के दिन मै पूर्ण रूप से अपने परिवार और अपने मित्रों की कमीं महसूस कर रहा हूँ, या कह सकतें हैं की मै लखनऊ की कमी महसूस कर रहा हूँ। जहाँ हमारी यादें बसती हैं, जहाँ हमारी मस्ती फिरती हैं या जहाँ हमारे मित्र रहते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति की तरह ये दिन मेरे लिए भी एक अहमियत रखता है। लेकिन लखनऊ में रहते हुए और अपने परिवार के सदस्यों तथा मित्रों से घिरे रहते समय इस दिन की विशेषता का उतना ज्ञान मुझे नही था, जितना की आज सुबह नींद खुलने के समय हो रहा था। क्योंकि लखनऊ में रहते समय सुबह बिना किसी उठाये जब भी नींद खुलती थी तो अपनो के चहरे मुझे घेरे दिखाई पड़ते थे, शुभ कामनाओं के साथ ये कहते हुए की जल्दी ब्रश करके आओ नही तो नाश्ता ठंडा हो जायेगा, मिठाई खत्म हो जायेगी और न जाने क्या-क्या सिर्फ़ अपनी ही मस्ती में। और वर्तमान में यहाँ आज सुबह मेरे साथ है सिर्फ़ मेरा अकेलापन, जो न चाहते हुए भी मेरा अपना है और उसका एक ही तोहफा है तनहाई।
आज भी बारी-बारी से सभी अपनो से मुझे आर्शीवाद और शुभ कामनायें प्राप्त हुई हैं। लेकिन मुझे उस तोहफे की कमी काफी महसूस हो रही है जो लखनऊ में मुझे बिना मांगे मिल जाता था। वो है मेरे माँ-पापा, भय्या का आर्शीवाद और मेरे दोस्तों का साथ।
आज के दिन मै इस बात को कत्तई नहीं छिपऊँगा की दोस्तों आज मुझे आप सब की कमीं काफी महसूस हो रही है। काश आज वो तोहफा मुझे हमेशा की तरह मांग कर भी मिल जाता।

सोमवार, 18 मई 2009

"किसी का इंतजार बाकी है..."


न कोई बात बाकी है
न कोई रात बाकी है
तमन्नाओं में जाने क्यूं
अब भी इक शाम बाकी है,

न कोई ख्वाब बाकी है
न कोई सफर बाकी है
डायरी में जाने क्यूं
अब भी कुछ याद बाकी है,

वादा था किसी का
न कोई मुलाकात बाकी है
दिल में न जाने क्यूं
किसी का इंतजार बाकी है !!

शनिवार, 16 मई 2009

"जागरुक मतदाता, उभरता लोकतंत्र..."

वर्तमान चुनाव के परिणाम को देखकर एक संतोषजनक स्थिति उत्पन्न होती है मजबूत पार्टी के रूप में तो मतदाताओ ने कांग्रेश को प्रस्तुत किया है लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में मजबूत नेता को अभी आना बाकी है इस बार के चुनाव में मतदाताओ ने अत्यधिक अवसरवादियों को बाहर का रास्ता दिखाया है, जो की निर्णायक सरकार के बनने का भी सफल मार्ग है
उत्तर प्रदेश में कांग्रेश की बढती सीटों को देखकर यह प्रतीत हो रहा है की यहाँ की जनता अब समप्रदायिकता से उबरकर शान्ति चाहती है, बेरोजगारी भत्ता की जगह रोजगार की गारंटी चाहती है, जातिवाद के सोशल इन्जीनरिंग से निकल कर देश की प्रगति एवं कुशल प्रशासन चाहती है
उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट के मतदाताओ के एक विशेष वर्ग ने एक बाहुबली पर एक विद्वान नेता मुरली मनोहर जोशी को जीत दिलाकर, साथ ही तमिलनाडु के शिवगंगा लोक सभा सीट पर बहुत ही करीबी और रोमांचकारी मुकाबले में देश के वर्तमान गृहमंत्री एवं एक कुशल नेता पी. चिदम्बरम को जीत दिलाकर संतुष्टि दी है
बिहार में ..यू . के प्रदर्शन और नीतिश कुमार के स्पष्ट बयान आने से एवं पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेश की विजयी सीटों की संख्या और ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षा को देखते हुए रेलवे मंत्रालय एक बार फ़िर पश्चिम बंगाल या बिहार की पटरी पर दौड़ती हुयी प्रतीत होती है ये तो बस अनुमान लगाये जा रहें हैं, अभी तो मंत्रिमंडल का आखिरी स्वरुप आना बाकी है
भारत की जनता निर्णायक सरकार के रूप एक सर्वश्रेष्ठ मंत्रिमंडल को देखना चाहती है जिसमे वर्तमान के असफल मंत्रियों और अवसर वादियों की झलक दिखलाई दे

शनिवार, 9 मई 2009

"गुलाल..."

अभी हाल ही में मैंने एक फ़िल्म 'गुलाल' देखी हैलेकिन मै इस फ़िल्म को अच्छे से समझ नही पाया हूँशायद इसीलिए मै अब तक इस फ़िल्म को कई बार देख चुका हूँलेकिन हर बार इस फ़िल्म के छोटे पर बहुत मारक संवाद ने इसके बारे में मेरे विचार को लगातार बदला है और मै इस द्वंद में रहा हूँ की ये फ़िल्म कोई संदेश देती है या फ़िर इसका नकारात्म अंत किसी यर्थात के दर्शन कराती हैये द्वंद भी मेरे इस फ़िल्म को कई बार देखने के फलस्वरूप ही उत्पन्न हुआ है क्योकि फ़िल्म देखने में हर बार मेरे साथी अलग-अलग थे और उनके विचार और किरदार की पसंद भी भिन्न थे अधिकतर लोगो को मैंने अपने परिवेश के मुताबिक किरदारों को पसंद करते देखा हैलेकिन एक दिन जब हम एक समूह में बैठे इस विषय पर चर्चा कर रहे थे तभी हमारे बीच बैठे एक शख्स जो की एक जाति विशेष के घोर विरोधी लग रहे थे ने अपनी पसंद फ़िल्म के एक किरदार करन (आदित्य श्रीवास्तव) को बतायातो हम अचम्भित भी थे और हँस भी रहे थेखैर हमारी हँसी ने ही उनको अपने उत्तेजना भरे बयान पर शर्मिंदा कर दिया और वो हमारे जवाब और कटाक्ष से भी बच गए इस फ़िल्म के समस्त पात्रो ने अपने-अपने अभिनय को तो बखूबी निभाया है लेकिन इस फ़िल्म में मौजूद इसके संगीत निर्देश एवम् अभिनयकर्ता पियूष मिश्रा ने अपने अभिनय एवं व्यंग दोनों से ही सबका ध्यान आकर्षित किया हैइनके द्वारा वर्तमान के पथ से भटके नौजवानों पर किए गए व्यंग पर यर्थात के दर्श तो होते ही है साथ ही हंशी भी आती है

"ओ
रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्ताँ
देखते कि मुल्क़ सारा ये टशन में थ्रिल में है

आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गये
अपनी आज़ादी तो भइया लौंडिया के तिल में है

आज के जलसों में बिस्मिल एक गूँगा गा रहा
और बहरों का वो रेला नाचता महफ़िल में है

हाथ की खादी बनाने का ज़माना लद गया
आज तो चड्ढी भी सिलती इंगलिसों की मिल में है!!
"

यहाँ हमें कुछ और भी देखने को मिला वो है विश्वास घातियों के अनेक रूप और सच्चे साथियों के कुछ विशेष रूप दुनिया जीतने के अपने ख्वाब को साकार करने के लिए ग़लत मार्ग के चुनाव का फल तो यहाँ ग़लत दिखाया गया है लेकिन उसके अंत में वर्तमान के मुताबिक ही बुराई की जीत भी दिखायी गई है जो इस बात को भी सत्य करती है की वो उससे ईमानदार इसलिए है क्योकि उसे चोरी के मौके कम मिले हैं शायद इसीलिए फ़िल्म के अंत में प्यासा फ़िल्म के पुराने गाने को नये रूप से प्रस्तुत कर यर्थात का क्षणिक अनुभव कराया गया है
"ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है..."

शनिवार, 2 मई 2009

चुनावी गुफ्तगू...

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक निष्पक्ष, ईमानदार, और मजबूत सरकार के गठन का एक ही हल है वो है मतदान| देश के उज्जवल भविष्य के लिए हमें ही ५४३ चुन्निदा चेहरे विश्व जगत के सामने प्रस्तुत करने होगें।
जिसमे अभी तक के मतदान प्रतिशता को देखकर काफी अफसोस हो रहा है।
ये कम मतदान विशेष रूप से क्षेत्रीय पार्टियों की जीत में सहायक होती। जिनका भारत के पिछडेपन में विशेष योगदान भी रहता है।
कुछ गलतिया हममे भी है हमने अक्सर लोगो को सामप्रदायिक ताकतों,अलगाव वादियों, जाति वादियों और बाहुबलियों को ही वोट करते देखा है। फिर भी सबको भारत की प्रगति ही दिख पड़ती है।
और तो और देश की जो सबसे सम्मानित दो पार्टिया है उन्ही के द्वारा जब ऐसे गलत लोगो का चुनाव कर टिकट दिया जाये तो ये काफी शर्म भरी बात है।
मुझे इसके विषय में कुछ जानकारी डॉक्टर उत्तमा जी के ब्लॉग से मिली लेकिन उन्होंने सिर्फ बाहुबलियों का ही जिक्र किया लेकिन कुछ विशेष पहलू को उन्होंने भी अनदेखा छोड़ दिया हैं|| राजनीति में परस्पर घोर विरोधी रही दो पार्टियों ( भा.ज.पा. और स.पा.) के बारे में, इन दोनों की आग में न जाने कितने लोग क्षेत्रीय स्तर पर एक दूसरे के जान के दुश्मन बने बैठे हैं और इधर इनकी मित्रता देखिये की एक के राष्ट्रीय अध्यक्ष के खिलाफ दूसरे ने अपना कोई प्रत्याशी ही नही खडा किया| ये भारत की किस राजनीति को दर्शाता है|
सब सत्ता में आने से पहले या आने के लिए एक दूसरे के आरोप को सिध्द करते हुए जेल में डालने की बातें करेंगे, CBI जेब में होने तक का दावा भी करेंगे लेकिन सत्ता में आने के बाद एक ही सिक्के के दो पहलू नजर आयेंगे, की न जाने आगे ऊंट किस करवट बैठे|
सब मजबूत सरकार बनाने का दावा करते है लेकिन मंत्री पद किसी तोड़ फोड़ में माहिर इन्सान को ही देंगे जो उनके गंठबंधन को बनाये रख सकें| शायद ही हम आगे अमरीका की तरह देख सकें की हमारे देश के जुझारू नेताओ को ही मंत्री पद का भार सौपा गया है चाहें वो विपछी पार्टी से ही क्यों न हो और सरकार के बनाने के किसी भी गठबंधन में किसी प्रकार की सहभागिता न हो।