रविवार, 30 अगस्त 2009

"तोहफा..."

ये रचना मैंने अपने लखनऊ विश्वविद्यालय में दोस्तों के मस्ती के साथ बीती जिंदगी के दौरान लिखी थी, जो डायरी के पन्नो में नीचे दबी पड़ी थी। आज जब नजरो के सामने मिली तो उन्ही एहसासो को आपके सम्मुख प्रस्तुत कर दिया.......



वो बचपन के छूटे हुए पल
वो हंसते हुए गुजरा कल
वो खुशी से झूमते हुए पल
वो चोट खाये रोते हुए पल
वो स्कूल की यादें
वो नन्ही शरारतें
दोस्ती में देखो इनका मजा क्या है !!

वो यारों की मस्ती
वो यारों से मस्ती
बिछड़े दोस्तों की यादों की मस्ती
वो दोस्तों का साथ
वो दोस्तों के देखें हुए ख्वाब
वो टूटे हुए रिश्ते
इन रिश्तों में बीतें हुए पल
यहीं यादें हैं दोस्ती की
यही अनमोल तोहफा है जिंदगी का !!

शनिवार, 29 अगस्त 2009

"जब भी ये मन उदास होता है..."

इस रचना को मैंने कुछ दिन पहले लिखा था। परन्तु कुछ कारणों वश उसे तब नही दे पाया था। इसे मैंने तब लिखा था, जब किसी अपने के कारण मुझे कुछ दुःख पहुँचा था और इत्तेफाक देखिये उस बार फ़िर मै अकेला ही था। उसी समय जो भावनाएं निकली उन्हें पन्ने पर दर्ज कर दिया और आज उन्ही एहसासो को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ...
जब भी ये दिल उदास होता है
कोई न जाने मुझे क्या रास होता है
मुस्कराते है हम भी
जब किसी का साथ होता है,
लगता है वो छलावा
पर करें भी हम क्या
जब दिल उदास होता है।
रहते थे तनहा
फ़िर रह गए तनहा
क्यों हुआ ये
बस यहीं सवाल होता है,
रोक ले हम किसी को कैसे
तनहाई खोने की चाहत में
वो ख़ुद से न जब
मेरे पास होता है।
होते है जीवन के
कुछ ऐसे पहलू भी
जिन्हें फ़िर से
जीने की चाह होती है,
इसी कसक में
इक गम साथ होता है
तभी ये दिल उदास होता है!!

बुधवार, 26 अगस्त 2009

"एक सबक हमने सीखी अब आप भी सीखों भाई..."

कहतें हैं ठोकरे इन्सान को चलना सीखती हैं। इसका उदाहरण बचपन से ही मिलता चला आ रहा है। जब अपने बडों से ज्ञात होता है की बचपन में पहला कदम बढ़ाने से पहले हमने कितनी ठोकरे खायी है। जिसका सबूत भी शायद शरीर के किसी भाग पर किसी पुराने चिन्ह के रूप में दिख जाता है। आगे और सबूत के तौर पर विद्यमान है जब हम बचपन से निकल कर साईकिल सीखते समय अपनी कोहनी छीलते है और लोग कहतें है अब तुम्हे चलाना आ जाएगा। आगे जब स्कूटी या मोटर साईकिल सीखते समय पैर चोटिल करते हैं तो सुनाई पड़ता है अब परिपक्व हो जाओगें। और आगे बढे तो कार सीखतें समय जब अच्छी तरह उसमे धन लगाने का बंदोबस्त कर दें तब फ़िर एक मुहर लगती है की अब सुधर जाओगे। और कही यातायात नियमो के तहत दंड का भुगतान कर बैठे तब हो जाता है की अब मास्टर हो गए।
टीक इसी प्रकार आज कई दिनों से एक उलझन में रहने के बाद मै भी ब्लॉग जगत के बारे में कुछ आंशिक रूप से सीख गया। पहला तो यही की यहाँ बस मस्त रहो। इसके आगे बस यही कहता चलूँगा की हमेशा यहाँ सकारात्मक सोच के साथ ही मौजूदगी दर्ज कराइए।
"खुशियाँ बाटो,
ज्ञान बाटो,
बाटो कुछ एहसासे भी,
जो भी सब को खुशी दे दे
बाटो वो जज्बातें भी॥"


हैप्पी ब्लॉगिंग...

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

बरसीं लाठियाँ, हाय लोकतंत्र...

देश में और दिल्ली में उस राष्ट्रीय पार्टी की सरकार है जिसने देश को पहली लोकतांत्रिक सरकार दी थी। लेकिन लोकतंत्र के नाम पर क्या मिला अपने बेबशपन को देखकर यह प्रश्न कभी-कभी जहन को काफी उद्वेलित कर देता है। सन् १९४७ के पूर्व जहाँ हमारे पूर्वजों का अंग्रेजों द्वारा शोषण होता था, अब हमारे लिए सरकारी मशीनरी ने यह काम संभाल लिया है। जिसका कुछ दुखद बयान मुझे यहाँ प्रस्तुत करना पड़ रहा है।
हम दिल्ली के मुखर्जी नगर क्षेत्र में रहकर यू.पी.एस.सी. की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहें हैं। यहाँ पर रह रहे हजारों छात्रों का कई प्रकार से शोषण स्थानीय लोगो द्वारा किया जाता है। जिसमे इनके रूप कभी मकान मालिक का, कभी दुकानदार का, कभी कोचिंग का, कभी कमरा दिलाने वाले दलाल का या फिर यहाँ के जाहिल ख़ुद को बादशाह समझते लोगों में से ही रहता है। जिसमे इनकी कहीं न कहीं से सहयोगी सरकारी मशीनरी भी रहती है।
इसी का एक १२ अगस्त २००९ का उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है की एक छात्र को एक स्थानीय दुकानदार ने सिर्फ़ इसलिए बुरी तरह हाकी और लोहे के राड से पीट दिया क्योंकि वह उसके दुकान के नीचे सीढियों के पास चाय पी रहा था। हालांकि वही एक चाय की दुकान भी स्थापित है। पिटाई से उसे बहुत गंभीर चोटें आई, और उसे जख्मी हालत में उसके कुछ मित्रो द्वारा हॉस्पिटल में भर्ती किया गया। कुछ लोगो से सुनने में आया है की उसके सिर में ८ टांके लगे हैं और गाल भी पूरा फट गया हैं। परन्तु उसके मित्रो द्वारा पुलिस को प्रथम सूचना रिपोर्ट देने पर, पुलिस उसे दर्ज न करके, न ही कोई कार्यवाही करके उन्हें ही गिरफ्तार कर पूछताक्ष हेतु थाने ले जाने लगी। देखतें ही देखतें ये ख़बर पूरे मुखर्जी नगर और आस-पास के क्षेत्रों में फ़ैल गई। जिससे अभी तक शोषित छात्र एक साथ जाग गए और सैकडों की संख्या में सड़को पर आकर उस दूकानदार की गिरफ्तारी की मांग करने लगे। परन्तु काफी देर तक ये मांग पूरी नही हुई और जब हुआ तो मामूली सी धारा में पुलिस ने उसे हिरासत में लेकर सुरक्षा प्रदान की। तब छात्रों का सब्र टूट गया और उन्होंने थोड़ा उग्र रूप धारण करते हुए रास्ता जाम कर दिया।
इस बात की जानकारी मुझे रात में करीब १० बजे हुई। जब एक फोन कॉल ने मुझे ये अवगत कराया की हमारा एक मित्र बुरी तरह घायल है और हॉस्पिटल में है। वो रोज की तरह मुखर्जी नगर में एक रेस्त्रां से रात का खाना खा के जा रहा था। तभी उसने देखा की सामने से कुछ पुलिस रुपी गुण्डे उसकी तरफ़ तेजी से लाठी भांजते हुए आ रहे थे तब वो खुद को बचाने के लिए वही इक परिचित के प्रथम तल पर स्थित कमरे में घुस गया लेकिन पुलिस ने तो शायद उससे कोई दुश्मनी कर ली थी की ऊपर मकान में दरवाजा तोड़कर उसे साथ ही अन्य मौजूद लोगो को मारते-मारते बेदम कर दिया। हमारे उस मित्र का नाम 'परवेज अंसारी' है, जिसे पुलिस दंगाई की संज्ञा देकर पीटने के आरोप से पल्ला झाड़ रही है। आपको मै बता दूँ की इस शख्स का कद मात्र ५ फीट ५ इंच के करीब है और वजन ५४ किलो ग्राम से ज्यादा नही होगा और बी.टेक. की डिग्री प्राप्त यह शख्स आई.ए.एस. अधिकारी के पद को प्राप्त करने हेतु अपनी नौकरी से त्याग पत्र देकर यहाँ तैयारी कर रहा है।
इसे पुलिसिया गुंडों ने इस प्रकार पीटा है की उसके सिर में तीन टांके लगे हैं और हाथ व पैर में भी पट्टियाँ बंधी हैं साथ ही अंदरूनी चोटों के कारण न वो ठीक से बैठ पा रहा है न ही लेट पा रहा है, जिससे दो-दो कोचिंग रहने के बावजूद तथा आगामी प्रतियोगी परीक्षाओ के रहने के बावजूद ये पढाई न करके स्वास्थ लाभ लेने के लिए मजबूर है ये तो मेरे मित्र का उदहारण है जबकि ऐसा यहाँ शाम से ही कई चरणों में पचासों छात्रों के साथ हुआ है शर्मिंदगी तब और आ जाती है जब ये पता चलता है की कई छात्राओं के साथ भी यही हुआ है वो भी वो जो अपनी-अपनी कोचिंग से छूटे थे या जो वहां स्थित ए.टी.एम. से रुपये निकालने गए थे या वो जो किताबें या कुछ अन्य सामान खरीदने गए थे या परवेज की भांति जो रात का खाना खाने गए थे
एक बात मै यहाँ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ की भारत के अन्य क्षेत्रो से आये विद्यार्थियों पर ही मुखर्जी नगर के और आस-पास के क्षेत्र की अर्थव्यवस्था निर्भर करती है जिनमे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, और पूर्वोत्तर के राज्यों से आये विद्यार्थियों की संख्या सर्वाधिक है अरे हम अंगुली उठाते हैं आस्ट्रेलिया पर और महाराष्ट्र पर जबकि देश की राजधानी में ही लोगो के साथ क्षेत्रवाद के द्वारा ऐसा शोषण हो रहा है, तब तो सरकारी मशीनरी ही एक प्रश्न चिन्ह बनकर रह जाती है जिसमे शामिल लोगो की अत्यधिक संख्या मुखर्जी नगर में रहकर तैयारी करके सफल हुए प्रतिभागियों की भी है
अब मुझे इस प्रदेश और देश की लोकतान्त्रिक सरकार से कुछ प्रश्नों के उत्तर चाहिए की स्थानीय स्तर पर लोगो से हो रहे यहाँ के शोषण के खिलाफ वो क्या कर रहे हैं? इस लोकतंत्र में बिना किसी पूर्व सूचना के या बिना किसी चेतावनी के निर्दोष छात्रो को बुरी तरह क्यों पीटा गया? कब होगी हमारे ऊपर हुए इस अत्याचार के खिलाफ कार्यवाही? कौन देगा हमारे प्रश्नों का जवाब? क्या अंतर रहा उस दुकानदार और कानून के रक्षक इन पुलिस वालों में? कौन गिरफ्तार करेगा इन दोषियों को? काश मिल सकता हमें इसका जवाब तो आजादी की ६२वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर हम और गर्व से कह पाते की हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश के निवासी हैं

बुधवार, 12 अगस्त 2009

"तनहाई..."

लिखा मैंने इसे काफी पहले था लेकिन आज फ़िर से इसे आप सब के सम्मुख पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ। ये रचना तब आई थी जब हम सब मित्र लखनऊ विश्वविद्यालय की जिंदगी में मस्त थे। और देर रात फ़िल्म देख कर और मस्ती करके जब मै अपने कमरे पर आया तो इकदम अकेला था, तब ही जो भावनाए आई उसे एक पन्ने पर दर्ज कर दिया..... वो अब आपके सामने है......


रात की तनहाई में
इक बार फ़िर हम आ ही गए
न चाहते हुए
अपनी कमजोरी छिपा ही गये,
किताबों से दूर हैं
और कलम चलाते गये,
इसी में
अपनों की कमी हटाते गये,

दोस्त खोजते हैं हमें
और हम ख़ुद को छिपाते गये,
जब सामने लाया ख़ुद को
सब मुझ में कमी बतातें गये,
हम भी नादान थे
सबको बातों में उलझातें गये,
सब महसूस करते हुए
वो दिल को बहलाते गये,

भूलतें हैं हम भी
लेकिन बिछड़े याद आतें गये,
क्यों बिछड़े या मिलें हम
इक सवाल उठातें गये,
हर बार भूलने की कोशिश की
यादों की आड़ में हर कदम हटाते गये,

दोस्तों का साथ हुआ
तो दुनिया को खुशी दिखातें गये,
मंजिल की तलाश में हम
इक साथ कदम बढ़ातें गये,
सब मंजिलो की ओर बढ़े
मुझे तनहाई महसूस कराते गये,
तनहाई में इक बार फिर हम आते गये
रात की तनहाई में हम आतें गये !!

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

"यादों की इक रेल चली..."

बस ऐसे ही एकांत में बैठा था मै की अन्तरमन कुछ पाने को व्यग्र सा हो रहा था। मैंने उसी समय अपनी कलम उठा ली और भावनाओ को एक पन्ने पर दर्ज कर दिया............. उसी एहसास की बातें अब आप लोगों के सामने यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.............
यादों की इक रेल चली है
संगी-साथी लाने को,
पाने को वो हमराही 
जो हमदर्द हमारा होता था, 
यादों की इक रेल...... 

सफर में चलती रही  

इक कारवां के साथ में 
मंजिल अभी मिल न सकी
कुछ राहगीर पाती गई, 
यादों की इक रेल.......

बदगुमाँ माहौल था जब 

मिला न वो हमसफ़र, 
सिसकियों की आड़ में 
वो दास्ताँ कहती गई,
यादों की इक रेल........

कुछ मित्रों को ढूंढ रही थी 

उन सूनी सी राहों पर, 
मस्ती के पल को कैद किए 
जहाँ पर यादें बसतीं थी, 
यादों की इक रेल........

भूली है न वो कुछ भी 

न भटकी है राहों से, 
सब मिल जाता उसको कैसे 
यह ही अब इक प्रश्न बचा, 
यादों की एक रेल चली है 
संगी-साथी लाने को !!