सोमवार, 25 जनवरी 2010

कुछ बातें परम्परा 2010 की...

कुछ कहने से पहले मै ये बता दूँ की मै यहाँ किस परम्परा की बात कर रहा हूँ| ये परम्परा नाम है हमारे सामान्य अध्ययन की कोचिंग संस्थान ध्येय के द्वारा   बैच के ख़त्म होने पर दी जा रही एक विदाई समारोह की| इसमे एक इत्तेफाक भी जुड़ गया था की आज ६१वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या भी थी| जिसमे हमारे साथ पिछले सात महीने से पढ़ रहे सहपाठियों ने जम के भाग लिया और यहाँ तक की अपने सर लोगों को भी उन सबने खूब अपने इशारों पर नचाया या कह सकते है सर खुद ही उनके कहने पर उन्ही के अनुरूप ढले रहे| उन सबने इतने अच्छे से सब कुछ किया की एक दर्शक बन कर देखते हुए खूब मजा आया | सबका नाम न जानने के कारण मै यहाँ कुछ का नाम ही देकर उनके द्वारा किये गए अपने प्रतिभा के प्रदर्शन के प्रति कोई अपराध नही करना चाहता| लेकिन प्रोग्राम ख़त्म होने पर मुझे एक कमी सी लगने लगी थी, वो ये थी की अपने आदत के विपरीत मै पिछले सात महीनो से इन लोगो के बीच में गुमनाम सा बना रहा हूँ और आज जब मौका मिला था तो भी गुमनाम ही रहा| फिर भी सबको महसूस कर के बहुत मजा आया और उसने मुझे अतीत की ओर पहुँचा दिया था| वो अतीत जिसको अभी भी जीने का मन करता है और उसी में ही सदैव रहने का मन करता है |
आज मै अपने लखनऊ विश्वविद्यालय के जीवन की बहुत कमी महसूस कर रहा हूँ वहाँ के दोस्तों की, शुभ चिंतको की और परचितों की आज न जाने क्यों बारी-बारी सी याद एक फिल्म की भांति नजरो के सामने से गुजरी चली जा रही है| इस समय ने मुझे बहुत से अनमोल तोहफे दिए थे जो आज भी मेरे साथ हैं| जिनमे सर्वोपरि हैं वो जिन्हें सब मेरे दोस्त/मेरे भाई कहते हैं| इन्ही में से किसी ने हमारे इस छोटे से वर्ग को 
ब्राण्डेड की संज्ञा दी जो दोस्ती में एक ब्रांड है| सब हैं तो आज भी हमारे साथ और सबसे विशेष की उनमे से एक दिल्ली में भी मेरे साथ है लेकिन क्या करूँ लालची जो मै बहुत हूँ, जिस कारण मुझे सब के साथ रहने की चाह होती है| यहाँ दिल्ली में हम दोनों भाई अपने लक्ष्य को पाने में ही इतने खोये है की खुद के लिए एक तो समय नही मिलता और जो मिलता है तो ज्यादा से ज्यादा फिल्मे या खरीदारी में सीमित रह जा रहे हैं और जो इससे भी चंद लम्हें बच जाये तो थोड़ी सी मशखरी भी कर लेते हैं| फिर भी इसमे कमी तो महसूस होती है क्योंकि महफिले तो ब्राण्डेड लोगो के साथ ही जमती है|
इसी कमी को दूर करने की चाह में मै आज के कार्यक्रम में मात्र एक दर्शक की भूमिका में शामिल हुआ था| जिसमे सबने इतने अच्छे से अपने हर काम को अंजाम दिया था की मै दंग था ये देखकर की हर वो इन्सान जिसे मै रोज देखकर भी अजनबी था वो ऐसा छुपा रुस्तम निकला| जिस कारण मै अपने असहभागी रवैये पर अफसोस भी करने लगा की मै अब भी इनके बीच गुमनाम ही रहा| लेकिन फिर भी मै इन सबको यहाँ जरूर धन्यवाद देना चाहूँगा जिन्होंने आज एक उत्तेजना मेरे अन्दर भर दी है इन्हें खुद से रूबरू कराने के लिए | जिसका माध्यम आज तो न हो सका लेकिन अब आने वाला समय जरूर होगा|

सोमवार, 11 जनवरी 2010

आँखों पर जोर डालो तो रास्ता दिखेगा...


आँखों पर जोर डालो तो रास्ता दिखेगा 
जितना वहम है कोहरा उतना घना नही होगा |

सैंतालिस में फरमान जारी कर बैठे थे 
हर जन को आजादी का अहसास हुआ होगा |

आज भी भुखमरी पर बहस जारी थी 
होंठो पर हंसी, हाथों में जाम भी होगा |

उजली खादी की फिर जमघट सजी थी 
उस भूखी माँ के तन पर चिथड़ा रहा होगा |

इन्कलाब कल फिर से उठ न सकी 
सत्ता तले कोई देशभक्त कुचला गया होगा |

है जवाबदेही किसकी इन प्रश्नो की 
यार सदन में यह प्रश्न बेबुनियादी रहा होगा |