हम आरजू के सितम से घबराने लगे हैं,
अब तो मरहम भी जख्म गहराने लगे हैं|
खता थी जो बेबाक थे हर साये में,
अब तो अपने भी अंगुलियाँ उठाने लगे हैं|
हर शख्स जो हाथों को थामे चलता था,
अब खुद को पाने में, सबको भटकाने लगे हैं|
गुस्ताखी की जो अमन में अपनी दास्ताँ बयाँ की,
अब तो खुद हम अपना आशियाँ बचाने लगे हैं|
खुली किताब थे जिनके सामने हर पल,
वो भी तो अब सबको मसखरे सुनाने लगे हैं|
कैसे करे दो बातें एहसासो की लोकेन्द्र,
अब तो चेहरे से जज्बातों की लकीरें छिपाने लगे हैं|