रविवार, 23 अक्तूबर 2011

इक उम्र के...

इक उम्र के 
इक सफ़र में 
इक पड़ाव की 
आस थी!

बढ़ना होगा 
या भटक रहे 
अब इस 
प्रश्न की 
तलाश है!!

सोमवार, 26 सितंबर 2011

सरदार जी के स्कूटर से मेरा बायां पैर और दाहिना हाथ घायल...

बचपन से सुना और पढ़ा है की रास्ते में हमेशा बाएं रहो.! लेकिन मजे की बात ये है की आज भोपाल के एम.पी.नगर में मै रोड के एकदम किनारे खड़ा था फिर भी एक सरदार अंकल अपने स्कूटर को मुझसे ठोक कर पूछे, "लगी तो नही.?" एक बार उनको देख कर मै अपना गुस्सा पी गया और वहाँ कोई तमाशा न बने इसलिए झट से उठ के कहा आप जाइये अंकल| खैर उस समय तो आभास नही हुआ लेकिन कुछ देर बाद जब बाएं हाथ की कुहनी में जलन महसूस हुई तो देखा खून बह रहा है और फिर जब मेडिकल स्टोर से दावा लेने बढ़ा तो पैर ठीक से नही रखा जा रहा था| खैर चोट ज्यादा नही लगी बस दाहिने हाथ की कुहनी बुरी तरह से रगड़ गई है, जिससे लिखते या पढ़ते समय हाथ को सहारा देने में तखलीफ़ है और बाएं पैर के मांसपेशियों में चोट है जिससे पैर ठीक से रखा नही जा रहा है| साथ ही फ्लैट पर पहुँचने पर पता चला की मेरी पैंट भी इसी में शहीद हो चुकी है|

वैसे जो होना था वो हो चुका है लेकिन मजे की बात ये है की अभी पिछले शुक्रवार को मेरे एक साथी ने मुझे रोड पार करते समय ये सलाह दी थी की भय्या सम्भल कर चलियेगा इस शहर में ट्रैफिक से खुद बचना होगा| उस समय भी मै हंसा था और अभी भी हंस रहा हूँ क्योकि आज मै एकदम बाएं खड़ा था और सरदार जी भी शायद बाएं चलो की नीति का अनुसरण करते हुए इतने बाएं होना चाहे की मुझी को मेरे बाएं से पीछाड़ना उचित समझा और मै अपनी बाएं तरफ से उनके चपेट में आ गया| खैर ईश्वर जो करता है वो अच्छे के लिए करता है, फिर भी मै भी अब इस बात का खुद अनुसरण करूँगा की इस शहर में बचना है तो खुद बचना है, नही तो आज बचे हैं कल का ईश्वर मालिक है...

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

यादों में ज़माना निकला...

हम रूठे, वो रूठे,
हम माने, वो माने,
हम ऐसे क्यूँ जाने 
हम भी थे दीवाने,
अब तो फ़साना निकला
यादों में ज़माना निकला|

कोई जब आया तो 
मिलकर हँसाया तो, 
करनी थी कुछ बातें 
करके उबाया तो,
अब भी फ़साना निकला 
यादों में ज़माना निकला 

आँखों की कहानी थी 
रूहों को सुनानी थी, 
कहते हैं कुछ अपने 
वो तो थे बस सपने, 
सपना इक देखा तो 
खोया या टूटा तो, 
अब भी फ़साना निकला 
यादों में ज़माना निकला|

जीवन की कहानी है 
अपनो की जुबानी है, 
करते थे जो संगी 
सबको सुनानी है, 
अब भी इक फ़साना निकला 
यादों में ज़माना निकला| 

राहों के साथी थे 
मंजिल दिखाते थे, 
भटके जो कोई भी
फटकार लगाते थे,
अब भी फ़साना निकला 
यादों में ज़माना निकला| 

हंसते तो, हंसते वो, 
रोया तो, रोया वो, 
खोया तो, खोये वो,
पाया तो, पाए वो,
रहता बस संग मै 
दुनिया घुमाये वो,
अब भी फ़साना निकला 
यादों में ज़माना निकला|

अब बस यादें हैं 
जो चले आते हैं, 
उन यादों की राहों में 
सब मिल जाते हैं,
अब भी फ़साना निकला 
यादों में ज़माना निकला|

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

अब समझ नही आता...

कुछ दिनों पहले की लिखी गई ये पंक्तियाँ बस एक आहत मन के भावनाओं को समाहित कर जैसी बनी वो अब आपके समक्ष प्रस्तुत है....


सुनहरी रातों में सपने भी सुनहरे थे,
हमको हर तरफ सब दिखते भी अपने थे|

खुद के अरमां थे, खुद का ही जूनून था,
दो कदम साथ बढे, सब हमसफ़र भी लगते थे|

चलना शुरू किया और किस किनारे पहुंचे थे,
हर मझधार में अब पतवार खोने से डरते थे|

फ़ासले थी दूरियों की, दिलो की गहराई में मिलते थे,
अब समझ नही आता, नासमझ थे या लोग हमें ठगते थे|

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

मारने पर करोड़ो और बचाने पर सिर्फ 25 हजार...


आज न्यूज चैनलो पर रेशमा जी के हिम्मत और त्याग भरे कर्म को देखकर हर भारतीयों की तरह मुझे भी गर्व हुआ.. अगर अफसोस हुआ तो सिर्फ अपने यहाँ चल रहे सरकारी तंत्र से की जहाँ ब्लास्ट के जाँच व उसे करने वाले के सुरक्षा के नाम पर करोड़ो और वोट के लिए अनुदान या सहायता राशि के नाम पर लाखों का खर्चा किया जाता है और जिसने अपने परिवार के ऊपर देश को तवज्जो दिया उसे सिर्फ और सिर्फ 25 हजार का नकद इनाम.. मै यहाँ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ की मै रुपये से किसी सम्मान को नही जोड़ रहा और न ही अपने जहन में इस बात की थोड़ी सी भी शंका रखता हूँ की इस हिम्मत भरे कदम को उठाने से पहले या बाद में उन्हे किसी प्रकार के इनाम की आशा रही होगी, उन्हे देश में सिर्फ शान्ति चाहिये थी जिसे अपने स्तर तक उन्होने सफल भी बनाया। उनके इस अमूल्य त्याग (अपने पति को ब्लास्ट करने के लिए बम रखने के आरोप में गिरफ्तार करा कर) की किसी भी ईनाम से तुलना किये बिना भी मुझे ये लगता है की वो जिस सम्मान की हकदार थी उन्हे वो नही मिला.. अफसोस है ये मुझे वोट के लिए देश को तोड़ने की राजनीति कर सत्ता का सुख भोगने वालों से..

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

एक प्रश्न...

एक प्रश्न
समय के अंचल में
मेरे मन में
कौँधता है,
मै, मै हूँ
तो मै कौन हूँ.!
तुम, तुम हो
तो तुम कौन हो.!!

सोमवार, 6 जून 2011

जब जरूरत थी तब नही तो.... अब कार्यवाही क्यों..?

बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए अहिंसक और शांतिपूर्ण आन्दोलन का बर्बरतापूर्वक दमन करने के पश्चात सरकार की उस कार्यवाही के समर्थन में बयानबाजी, उनके पहले से काले चहरे को और काला कर रही है| सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर पुलिसिया कार्यवाही को जायज ठहराने को लेकर उनका जो रूप उभर के सामने आ रहा है उससे साफ प्रतीत हो रहा है की वो अपने वोट बैंक को लेकर कितने संवेदनशील हैं| आज इनके इस रूप के कारण कुछ समय पहले की जनता के मध्य सबसे लोकप्रिय सरकार से जनता को जो अनुभव प्राप्त हुए हैं उससे जनता खुद को एकदम ठगी सी महसूस कर रही है|
सरकार का ये पहलकारी चेहरा वोट बैंक की राजनीति के विपरीत अगर जनता के हितो से सम्बंधित होता तो न ही उच्चतम न्यायलय से उसे इतनी फटकार सुननी पड़ती और शायद जो प्रश्न आज हर तरफ उठ रहा है की गैर राजनीतिक लोगो को ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम क्यों शुरू करना पड़ रहा है, इसकी जरूरत भी न पड़ती| कुछ समय पूर्व के संविधान विरोधी आंदोलनों के प्रति इसी सरकार की निष्ठा को सामने लाया जाये तो इनके चहरे में छिपे भाव स्पष्ट नजर आने लगेंगे| जैसा की इनका रवैया कुछ दिन पूर्व के गुज्जर और जाट आंदोलनों के प्रति थी| जिसने पूरी सुरक्षा व्यवस्था को ही नही बल्कि आम नागरिक को भी बदहाल कर दिया था| साथ ही इनके द्वारा हमारे टैक्स के बने सरकारी धन की जमकर होली भी खेली गई थी| लोग त्योहारों या किसी घरेलू कार्यक्रम में अपने घर जाने के लिए, बीमार इलाज कराने जाने के लिए, श्रमिक रोजगार पर वापस लौटने के लिए और छात्र अपने शिक्षण संस्थानों तक पहुँचने के लिए जद्दोजहद करते रहे, कुछ तो बीस की जगह पचास खर्च करके सफल हुए और कुछ थक के अपनी किस्मत को ही दोषी करार देते हुए हार मान गए| तब सरकार इतनी गहरी नींद में थी जैसे उसे कुछ आभास ही न हो| लेकिन यहाँ उनके नींद में जाने का विशेष कारण मौजूद था क्योंकि ये पूरी एक समुदाय से जुड़ा मुद्दा था जो किसी दल को अपना मत सामूहिक रूप से दे सकते थे| तो फिर सरकार उनसे कैसे बैर ले सकती थी, जिसको झेलना था वो तो झेल चुके ही हैं|
सबसे परेशान करने वाली बात ये है की सरकार का ये पहलकारी चेहरा सिर्फ उस आन्दोलन को दबाने में ही नजर आता है जो भिन्न-भिन्न समुदाय के लोगो से मिलकर भ्रष्टाचार के खिलाफ या सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ हो, साथ ही उसका उनके वोट बैंक के खिसकने से सीधा सम्बन्ध भी हो| जैसा की एक प्रमाण है यू.पी.ए. एक की सरकार में लागू हुए उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण से उपजे आन्दोलन के खिलाफ इसमे शिरकत कर रहे देश के श्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों के छात्रो को किस तरह अनसुना करते हुए उन्हें प्रताड़ित करके भगाया गया| इसके साथ में मीडिया पर सरकार का दबाव हो या उनका स्वयं से ही सरकार के प्रति सहयोगात्मक रवैया, शायद ही लोगो के स्मृति में इसकी धुंधली छाप शेष हो और दूसरा हाल ही के अन्ना हजारे के आन्दोलन को जब उनकी आशा के विपरीत अत्यधिक सहयोग मिलने लगा तो उनका एक कुशल कूटनीतिक हल भी अब सबके समक्ष प्रस्तुत है|  लेकिन जो भी हो इस सरकार का तब से लेकर आज तक का मिजाज अपने वोट बैंक को लेकर स्थायी ही रहा है|
यहाँ सरकार को ये स्पष्ट कर लेना चाहिए था की बाबा रामदेव और रामलीला मैदान में उपस्थित पचास हजार आंदोलकारियों को शारीरिक चोट और भ्रष्टाचार के खिलाफ उनसे आस लगाये बैठे करोड़ों समर्थको को मानसिक चोट पहुँचाने से पहले उनको अपनी रणनीति कहाँ पर पहलकारी करनी चाहिए थी| क्या जितनी शीघ्रता से सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ के इस आन्दोलन को गैरकानूनी घोषित कर दिया, उतनी तीव्रता से विदेशी बैंकों में जमा काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति नही घोषित कर सकती थी| सरकार को इस काले धन की प्रभाविता या उस धन के मालिको के दबाव समूह से प्रभावित हुए बिना या उनसे लाभ लिए बिना जनता के हितो और अपेक्षाओं के प्रति जवाबदेहिता के साथ कार्य करना चाहिए| साथ ही अगर अपने पहलकारी चेहरे को सर्वमान्य बनाना है तो भ्रष्टाचार के मामलों यथा टू जी स्पेक्ट्रम, सी.डब्ल्यू.जी.,  देवास, ताज कोरिडोर, खाद्यान्न घोटालों के साथ आय से अधिक संपत्ति रखने में फसें राजनेताओं और नौकरशाहों पर कार्यवाही पूर्ण करें, देश में बढ़ रही आतंकवादी घटनाओ को असफल करने में तीव्रता आये, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में बढ़ रहे  अलगाववादी तत्वों को अपना मौन समर्थन न देकर उनपर कार्यवाही सुनिश्चित करें, देश की सुरक्षा को चोटिल कर चुके आंतकवादियों को न्यायालय से मिली सजा को पूर्ण करवाएं और देश को पुनः बांटने में तुली सांप्रदायिक ताकतों पर नकेल कसने में अपने कदम अग्रसित करें| अगर इतने मुद्दों पर सरकार के ये रणनीतिकार पहलकारी होतें तो न आज इस आन्दोलन की जरुरत होती और न ही इसे दबाने के लिए उन पाँच हजार सिपाहियों की और न ही उनको अपने वोट बैंक पर खतरा मंडराता नजर आता|  
सरकार इस बात से थोडा निश्चिन्त है की जनता को उन्हें अपना प्रत्यक्ष जवाब २०१४ में देना है| इससे पूर्व जनता ने अगर उनसे जवाब माँगा तो वो क्या देंगे इसे उन्होंने दिखा दिया| लेकिन सरकार के प्रति इतना तो तय है की देर से ही सही लेकिन १२१ करोड़ की जनता के इस भारत देश में व्यस्क मताधिकार का हक़ रखने वाले उन्हें अपना जवाब जरूर देंगे की वो एक लोकतांत्रिक सरकार चाहतें हैं या..........?