सोमवार, 10 दिसंबर 2012

मै हूँ मानव जात का...

स्वघोषित, आम आदमी पार्टी के समर्थक और आप के सहयोगी के रूप के रूप में जब स्वयं के परिचय में धर्म/जाति को हिन्दू, क्षत्रिय ........ से बदलकर एक आम आदमी किया तो उसके पीछे जो तर्क और शर्त रही, उसे इक नज्म में पिरोने की कोशिश की। जो अब आप सब के सामने है...



मन्दिर का हूँ न मस्जिद का हूँ
न हूँ राम-रहीम का,
इस वक़्त, भागती दुनिया में
मै हूँ एक गरीब का,

अमीर भी हूँ, गरीब भी हूँ,
हूँ मै ख़ुश नसीब भी,
हर वक़्त तौलती दुनिया में
कीमत है सिर्फ जमीर का।


खोया भी हूँ, पाया भी हूँ,
लुटता चला आया भी हूँ,
इक भेद देखना होगा
रिश्ता और जागीर का।

संगी भी हूँ, साथी भी हूँ,
हूँ मै हमसफ़र भी,
इस साथ खोजती दुनिया में
मै हूँ भारत देश का।

लड़ना भी है, पाना भी है,
है खुद के लिये छीनना भी,
ये लक्ष्य रखेगें तभी
जब होगा मानव जात का।

हर जख्म की जिसे शह है मेरी...

करता रहा वार, हर जख्म की जिसे शह है मेरी, 
सिर्फ अपने ही गम दिखाकर, छीनी  कुर्बनियत मेरी।

हवायें भी अक्सर...

अब तो हवायें भी अक्सर अपना रुख मोड़ लेती हैं, 
शर्म ओढ़े चेहरे से पल्लू जब सरकता है।

मौसम की परछाई बन...

मौसम की परछाई बन 
नयी सुबह में आये तुम, 
आँखों की गहराई  में खोकर 
नई ऊँचाई पाये तुम, 
दिल में इक संकोच भरा था 
जिसे समझ न  पाए तुम, 
गुमनाम अँधेरा गुम कर बैठा 
एहसासो की डोर पकड़ न पाए तुम।

हम फिर अपना अहसास सुनाते हैं...

कुछ आईने वक्त पर दरक जातें हैं, 
एक नज्म की आड़ में 
हम फिर अपना अहसास सुनाते हैं...

तनहाई के आगोश का 
साथ है इस वक्त भी, 
फिर भी माखौल उड़ा 
मेरे ही जज्बात का... 

न इकरार था, न इजहार था 
और न ही था इंतजार हमें, 
फिर भी  लोग मशगूल रहे 
चर्चा में मेरे साथ का.. 

सच कहूँ तो है मुझे 
अफसोस अब भी इस बात से, 
क़त्ल करना ही था अगर 
क्या ज़रूरत है राज का..

कुछ वफ़ा भी थी मगर 
उन चंद लमहों के साथ में, 
की यकीं होता है अब भी 
मौसम की  उस बात का...

एक प्रश्न...

एक प्रश्न  
समय के अंचल में 
मेरे मन में 
कौंधता  है, 
मै, मै  हूँ 
तो मैं कौन हूँ! 
तुम, तुम हो 
तो तुम कौन हो!!