मंगलवार, 9 जुलाई 2013

है उठा मंजर जो देखो...

है उठा मंजर जो देखो
बस सिसकियों की टोह है 
बिन दुआ के 
बिन ख़ुदा के 
बिन सुबह के 
जिंदगी वीरान है,
है उठा मंजर...........

क्या खता थी उसकी ऐ ख़ुदा 
जिसके बाकी अभी कई ख़्वाब थे 
सूनी आँखें है टटोलती 
जिसे अपनों के आने की कुछ आस है,
कर रहे है अब भी वो बहस 
कुर्सी पर बैठे 
हाथों में लिए जो जाम है,
है उठा मंजर...........

दिख रहा गिद्धों का झुंड 
मौसम जहाँ बदला हुआ है 
खंडहर अब भी बचे 
देते उस तबाही का प्रमाण है 
निकलने लगे है खादी के मेढ़क 
देखते हैं दिल्ली का क्या अंजाम है,
है उठा मंजर...........

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